• सिंधियाओं से रिश्ते खोजते फिरते मोदी

    मोदी जिन सिंधियाओं के साथ नातेदारी कायम कर रहे थे, वे और उनकी पार्टी अभी हाल तक उन्हीं को- सिंधियाओं को- निपटाने में लगी थी।

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    — बादल सरोज
    मोदी जिन सिंधियाओं के साथ नातेदारी कायम कर रहे थे, वे और उनकी पार्टी अभी हाल तक उन्हीं को- सिंधियाओं को- निपटाने में लगी थी। ज्योतिरादित्य - खुद बकौल मोदी यदि उनके दामाद हैं तो इस नाते से वसुंधरा राजे सिंधिया उनकी समधिन हुईं। इन समधिन के साथ उनके रिश्ते कैसे हैं यह पिछले महीने में सिर्फ राजस्थान नहीं पूरे देश ने देखा है।


    जहां, जिनके बीच भी जाते हैं उनके साथ, उस शहर, इलाके, व्यवसाय और लोगों के साथ अपना रिश्ता बनाने के अपने कारनामे को जारी रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार ग्वालियर के साथ- असल में सिंधियाओं के साथ- अपनी नातेदारी कायम की। भले ग्वालियर ऐसा माने या न माने, मोदी को लगता है कि सिंधिया ही ग्वालियर है, ग्वालियर ही सिंधिया है। ठीक उसी तरह जैसे भले भारत माने या न माने उन्हें यह भरम है कि मोदी ही भारत है- भारत ही मोदी है।


    उनके मुताबिक सिंधियाओं के साथ उनके एक नहीं तीन संबंध हैं ; एक तो वे चूंकि काशी से सांसद हैं इसलिए काशी वाला संबंध है। सिंधियाओं के खानदान के लोगों ने काशी- बनारस - में गंगा किनारे घाट बनवाये थे ; इसलिए उनका सिंधियाओं यानि ग्वालियर के साथ नाता हुआ। दूसरा यह कि ज्योतिरादित्य सिंधिया गुजरात के दामाद हैं, और चूंकि मोदी जी स्वयं सम्प्रभु और सार्वभौम गुजरात भी हैं इसलिए वे उनके भी दामाद हुए। तीसरा रिश्ता उन्होंने यह बताया कि-वे जिस प्राथमिक विद्यालय में पढ़े उसे गायकवाड़ो की रियासत में सिंधियाओं ने खोला था!! यह वाला दावा थोड़ा अतिरिक्त खोजबीन की दरकार रखता है। वे सिंधियाओं के स्कूल से पढ़कर निकले 10 नामचीन पूर्व छात्रों के नाम भी रट कर आये थे- इनमें हुड़दबंग वाले सलमान खान भी थे। मगर जिस जोरशोर के साथ वे सिंधियाओं के साथ नाते-रिश्ते बना रहे थे वह खासा दिलचस्प था।


    मोदी जिन सिंधियाओं के साथ नातेदारी कायम कर रहे थे, वे और उनकी पार्टी अभी हाल तक उन्हीं को- सिंधियाओं को- निपटाने में लगी थी। ज्योतिरादित्य - खुद बकौल मोदी यदि उनके दामाद हैं तो इस नाते से वसुंधरा राजे सिंधिया उनकी समधिन हुईं। इन समधिन के साथ उनके रिश्ते कैसे हैं यह पिछले महीने में सिर्फ राजस्थान नहीं पूरे देश ने देखा है। मोदी ने अपनी सभाओं में, मंच पर उनके बैठे होने के बावजूद, उनका नाम तक नहीं लिया। कुछ जगह तो उनके भाषण भी नहीं हुए। राजस्थान की भाजपा के पोस्टर्स में वसुंधरा, जो इस प्रदेश की भाजपा की एकमात्र सक्रिय पूर्व मुख्यमंत्री हैं, की तस्वीरें गायब रहीं । वसुंधरा 'राजेÓ सिंधिया अटल- आडवाणी काल के बचे-खुचे भाजपाई नेताओं में से एक हैं और अख्खा राजस्थान ही नहीं बाकी देश भी जानता है कि मोदी उन सहित ऐसे नेताओं को पसंद नहीं करते, बल्कि सख्त नापसंद करते हैं। उनकी नाराजगी की एक वजह ये भी है कि यह पूर्व मुख्यमंत्री उनकी जी हुजूरिन नहीं बनी, राजस्थान के तख्तापलट की उनकी साजिश में हिस्सेदार नहीं बनीं।


    यही गत हाल तक ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी रही। यही थे जिन्होंने कांग्रेस को तोड़कर, उससे दगाबाजी कर, 2018 के जनादेश के साथ गद्दारी कर मध्यप्रदेश की जनता द्वारा हराए गए शिवराज सिंह चौहान को दोबारा मुख्यमंत्री बनाया था। मगर दिलचस्प बात यह थी कि इनके खिलाफ कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के क्षत्रपों ने मोर्चा खोला हुआ है। उनके एक चौथाई दलबदलुओं की टिकिट ही कटवा दी है। मगर जनता के भाजपा विरोधी आक्रोश को देखकर भाजपा इन राजा महाराजाओं और महारानियों के सामने एक बार फिर शरणागत हो रही थी। उनके आगे नतमस्तक थी। पहली सूची में वसुंधरा समर्थकों की टिकट काटने के बाद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व दूसरी सूची में 'भूल सुधार' कर महारानी वसुंधरा की जय हो का जाप करती हुआ दिखा। ज्योतिरादित्य को साधने के लिए खुद मोदी ग्वालियर में उनके खानदान का गुणगान करने पहुंच गए। सामंतों के आगे सिर झुकाने की यह अदा सिर्फ राजनीति की उस कला का प्रदर्शन नहीं था जिसका मर्म बताते हुए लेनिन ने कहा था कि 'जब वे एक दूजे के सम्मान में कसीदे काढ़ रहे होते हैं तब, ठीक उसी समय, मन ही मन वे उनका मर्सिया पढ़ रहे होते हैं'। यह सिर्फ चतुराई नहीं है यह नवम्बर में होने वाले विधानसभा चुनावों के पहले जनता में दिखाई दे रहे मुखर आक्रोश से पार पाने की हताश कोशिश है।


    बहरहाल मोदी ग्वालियर में सिंधियाओं के साथ रिश्ते बनाते समय दो महत्वपूर्ण नाते गिनाना जानबूझकर भूल गए।
    सिंधियाओं के साथ उनके कुनबे का एक रिश्ता बरास्ते गांधी भी है। गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे, जिन्हें इन दिनों उनका कुनबा अपना आराध्य बताने से तनिक भी नहीं हिचक रहा, को पिस्तौल इन्हीं सिंधियाओं के सौजन्य से मिली थी। इस बात के अनगिनत प्रमाण हैं कि उसे चलाने का रियाज गोडसे ने सिंधिया महल में ही किया था। गांधी हत्याकांड में धरे गए लोगों में अनेक इसी ग्वालियर के थे और सबके सब उस हिन्दू महासभा के नेता थे जो तत्कालीन सिंधियाओं की खुद की अपनी पार्टी हुआ करती थी। इतनी अपनी कि पहले लोकसभा चुनाव में ग्वालियर और गुना दोनों सीटों से अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के महासचिव वी जी देशपांडे जीते थे। ये देशपांडे साहेब बाद में विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापकों में से एक बने। जब उन्होंने ग्वालियर सीट छोड़ दी तब उनके बाद भी हिन्दू महासभा के ही नारायण भास्कर खरे जीते थे। ये वे खरे थे जिन्हें नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे के साथ निकट संबंधों के चलते नजरबन्द किया गया था। यह सब सिंधियाओं का ही प्रताप था इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि महाराज के देहांत के बाद जब विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस में आयीं तब से हिन्दू महासभा का इस अंचल से सफाया हो गया।


    सिंधिया का एक और जगप्रसिद्ध रिश्ता मोदी गिनाना भूल गए- जिसका जिक्र लन्दन में बैठे कार्ल मार्क्स ने अमेरिका के अखबार में लिखे अपने भारत संबंधी लेखों में किया है और वह है सिंधियाओं का भारत की आजादी की लड़ाई में विश्वासघात; सही शब्द होगा गद्दारी!! कार्ल मार्क्स ने जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम बताया था, उस 1857 के मुक्ति संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के ग्वालियर पहुंचने पर सिंधिया सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता के शब्दों में 'अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थीÓ का कारनामा दिखा रहे थे। भाजपा में शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पहले तो यह पूरी कविता ही स्कूलों के पाठ्यक्रम से हटाने की कोशिश की - वह नहीं हुआ तो इन पंक्तियों को हटवाने के लिए अड़े।


    सिंधियाओं के साथ अपनी नातेदारी दिखाने के मामले में मोदी की यह चुनिन्दा विस्मृति इस बात का उदाहरण है कि वे आगामी विधानसभा को लेकर कितने फिक्रमंद हुए पड़े हैं। बिना यह जाने कि जो दरिया झूम के उ_े हैं वे इन तिनकों से न टाले जायेंगे।
    (लेखक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा)

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